नई दिल्ली पटना
बिहार में हुए जातिगत सर्वे को लेकर भले ही कांग्रेस की टॉप लीडरशिप उत्साहित है, लेकिन प्रदेश स्तर पर पार्टी बंटी हुई नजर आ रही है। पूर्व अध्यक्ष अनिल शर्मा ने सवर्णों आबादी घटने पर सवाल उठाए तो एक अन्य नेता किशोर कुमार झा ने पलायन के लिए लालू राज को अप्रत्यक्ष तौर पर जिम्मेदार ठहराया। कुछ नेताओं का तो यहां तक कहना है कि राज्य एक बार फिर से बैकवर्ड क्लास पॉलिटिक्स की ओर बढ़ सकता है। इसके चलते राज्य में विकास की राजनीति नहीं होगी और उसका नुकसान होगा। अनिल शर्मा ने तो एक के बाद एक कई ट्वीट कर रिपोर्ट पर ही सवाल उठाया और कहा कि आखिर सवर्ण इतने कम कैसे हो गए।
उन्होंने तो विकिपीडिया का एक स्क्रीनशॉट शेयर कर यहां तक कहा कि सरकार को डेटा जुटाने में दखल नहीं देना चाहिए। आखिर जो सवर्ण 2022 तक 22 फीसदी थे, वे अब 15 पर कैसे आ गए। यही नहीं उन्होंने जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उसकी उतनी भागीदारी की तर्ज पर तीन डिप्टी सीएम बनाने की भी मांग की। उन्होंने कहा कि नीतीश कुमार को तत्काल एक अत्यंत पिछड़ा, एक मुस्लिम और एक एससी समुदाय का डिप्टी सीएम बनाना चाहिए। वहीं किशोर कुमार झा ने कहा कि सरकार को इसका आत्मावलोकन करना चाहिए कि फॉरवर्ड कास्ट की आबादी कम क्यों हो गई।
किशोर कुमार झा के अपने ही बेटे नौकरी के चलते दिल्ली में रहते हैं। उन्होंने कहा, 'मंडल के दौर के बाद पिछड़ी जातियों की आक्रामकता और बुरे शासन के चलते फॉरवर्ड क्लास ने अपनी सुरक्षा, अच्छे जीवन और एजुकेशन के लिए दूसरी जगहों पर पलायन किया। हालांकि अब भी उनकी जड़ें गावों में हैं और वे मौके-मौके पर आते भी हैं। लेकिन ऐसे बहुत से लोगों की गिनती ही नहीं की गई।' एक अन्य कांग्रेस नेता ने नाम उजागर न करने की शर्त पर कहा कि सत्ताधारी पार्टी ने नरेंद्र मोदी सरकार से मुकाबले के लिए यह एजेंडा खड़ा कर दिया है, लेकिन इसके विपरीत परिणाम भी हो सकते हैं।
हालांकि शकील अहमद जैसे कुछ नेता हैं, जो इस सर्वे के समर्थन में हैं और उनका कहना है कि इससे कमजोर तबके के लिए नीतियां बनाने में मदद मिलेगी। राज्य की अपर कास्ट में ही गिने गए शकील अहमद खान ने कहा, 'यह सर्वे बताता है कि किस जाति के कितने लोग हैं और उनकी आर्थिक स्थिति कैसी है। यह एकमात्र प्रामाणिक डेटा है, जिसके जरिए लोगों की मदद की जाएगी।' एएन सिन्हा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज के डायरेक्टर डीएम दिवाकर भी कहते हैं कि इस सर्वे के बाद अब बहुसंख्यकवाद की राजनीति जोर पकड़ सकती है।